आज सब तरफ दरभा घाटी के
नक्सली तांडव की चर्चा हो रही है ..!!! इस चर्चा में कुछ फेसबुकिये तो
अपने आपको अराजकतावादियों से भी बड़ा जुगालीवादी सिद्ध करने के लिए हिंसा की निंदा
की ऊपरी लाइन डालने के बाद अंदरखाने में प्रकारांतर नक्सली आतंक को
महिमामंडित करने जुटे है ???...
इनमे से बहुतेरो ने तो बस्तर देखा ही नही और लालकिताब की तोता
रटंत शुरू कर दी है .....!!!!
कितनो ने गंगालूर की बेबसी ,पुश्नर की तड़फ , दरभाघाटी
के एन ऊपर एलाग्नार की उजाड़ चोटी एपदेड़ा
की भूख, तोकापाल की वेचेनी
कुटरू की वीरानगी
उसूर के बाजार
भोपाल पटनम की त्रिराज्यीय सीमाएं छिंदगढ़
जैसे अनेक दण्डकारण्य के भू-भागों को देखा जाना है ?
दण्डकारण्य के ऐसे अनेक जाने पहचाने भूले विसरे क्षेत्रों को देखे परखे बगैर
आप कैसे लाल किताब के जोर पर कहते है कि - खूनी आंतक के बीच आदिवासियों के खून का
उबाल है, नक्सली आंतकबाद में आदिवासी जिंदाबाद है,
लाल सलाम की दहाड़ में पूंजीवादियों की पछाड़
है, नक्सली दलम बस्तर से खनन-वन माफिया का तोड़
है, सलवा जूड़ुम आदिवासी शोषण का निचैड़ है,
दादा लोगों की दादागिरी भ्रष्ट तंत्र को काबू
में करने का औजार है, लोकतंत्र एक दिखावा है,
पंचायती राज एवं चुनावों का वायकाट शोषण की
काट है, जनप्रतिनिधियों का खून पानी है, सुरक्षाकर्मियों की शहादत बेमानी है........
इत्यादि.......। यह चतुर सुजान यह कहते भी नहीं थकते कि पहले रोटी नहीं दी गई इसलिए अब गोली दी जा रही है ............ गोया आपने बच्चे को भूखा रखा तो हम खून पिलायंगे ......... विकास नहीं
हुआ तो विनाश हो रहा है !
अब लाख टके का सवाल यह है कि
इन आतंकियों ने लाल खाल ओढ़ कर कौन सा स्वर्ग रच दिया
है और कौन सा संसार रचना चाहते है ? ये नारे
लगाते है कि प्रजातन्त्र
एक धोखा है और उनकी दुनिया ही वंचितों को न्याय दिला सकती है ....... अब आइये जरा इनकी दुनियां के सच को जाने अबूझ माड़ में
अघोषित तौर पर इनका वर्चस्व है तो वहां के आदिवासियो को इनकी हम्माली के अलावा कुछ भी नहीं मिला ... वो आज भी मुलभूत सुविधाओ से वंचित है ? ये माओ दूत
उन्हें शिक्षा के नाम पर सिर्फ गुरिल्ला युद्ध की दीक्षा देते है ......... खुद मिनरल वाटर पीते है और उन्हें आदिवासी संस्कृति
के नाम पर दोयम दर्जे का जीवन जीने का उपदेश देते है ......... खुद टिपटॉप वर्दी पहनते है और उन्हें लंगोटी
पर छोड़े है ?सर्वहारा की खुशहाली की बात करते है और अंचलो में रोड सहित दुसरे निर्माण
कार्यो को रोकते है ? जैसा ये कहते है की
लगभग देश के 2OO जिलों में इनकी तूती बोलती है तो भैया इन इलाकों में स्कूल क्यों सूने है ? यहाँ के
विकास विभागों के अधिकारी कर्मचारी डर के मारे फिल्ड में न जाकर बजट को ऑफिस
से ही खर्च कर रहे है ...... उन्हें क्यों नहीं सुरक्षा की गारंटी देकर आम
आदिवासी से जोड़ते है ? आपने खूब फारेस्ट पुलिस
के अमलो को मारा पर विकाश कार्यो से जुड़े कितनो पर हाथ उठाया जबकि आपके ही
मुताबिक सरकारी एजेंसिया विकाश नहीं कर रही है मतलब साफ है आपकी तूती के बाद भी आप न तो आदिवासियो का
विकास कर रहे है और न ही विकास एजेंसियों से काम करा रहे है बल्कि उनसे जजिया वसूल
कर मुटिया रहे है ?
तो इनकी जजिया वसूली वदस्तुर खनिज -वन -ट्रांसपोर्ट दारू कंपनियों के साथ
-साथ नेताओ से चुनाव वायकॉट पर है ?
न माओ के नाम पर चीन कहा से कहां पहुंच गया .........उनकी आत्मा इन पाखन्डियो के कारनामो
से रो रही होगी ....... माओ ने ये कभी नहीं कहा था की शोषण का हस्तांतरण हो
उन्होंने तो हर हालत में वंचितों के हक़ की बात कही थी...... माओ सापनाथ से ज्यादा नागनाथ
को कुचलने के हिमायती थे.........माओ कायरता के घोर विरोधी थे जबकि ये
नक्सली इतने कायर है की लड़ाई में हमेशा भोले भाले आदिवासी महिलाओ --बच्चो को
जानवरों की भांति घेर कर ढाल बनाते है ? तथाकथित जीत के बाद इन बेचारो
से मुर्गा दारू पार्टी लेते है इन्ही के परिवारों में रात गुजारते है .
हां एक बात और ये अपनी
सरपरस्ती किसी स्थानीय आदिवासी लीडर
को न सौंप कर इसी तथा कथित शोषित सरकार द्वारा संचालित सरकारी कॉलेजों से
निकले अग्रेंजी दा बेरोजगार झोलेधारी खिचडीदाडी ओढे पडोसी राज्यों के सिरफिरे की
सरपरसती स्वीकारते है क्योंकि यह नेता देश विरोधी ताकतों द्वारा देश को चीरने के
लिये लाल कोरिडोर बनाने में मुफीद दलाल होते है, जबकि स्थानीय आदिवासी नेता देश द्रोह की बात सपने में भी नही
सोच सकता । मतलब साफ है स्थानीय आदिवासी लाल आंतक के लिये सिर्फ रॉ मटेरियल बनकर
रह गया है।
इनकी इसी बर्वता के चलते यह आज तक आदिवासियों के बीच रामकृष्ण
आश्रम, व्यास पीठ, गायत्री परिवार,
मिशनरी जैसी सेवा भावी आस्था पैदा नहीं कर पाये है। आखिर धुर अबूझ
आदिवासी क्षेत्रों में इन्द्रावती के उसपार महाराष्ट्र के गढचिरोली जिले में
बाबा आम्टे के आश्रम की प्राण वायु यह दुष्ट क्यों ग्रहण नही करना चाहते ? मकसद साफ है खनन - वन- शराब - परिवहन - नौकरशाही से कमीशन खोरी कर मुटियाने,
देशद्रोही ताकतो की सह पर लाल कॉरिडोर का खंजर भारत माता के
सीने में चीर कर देश को अस्थिर बनाये रखना ही इनका मूल एजेण्डा है बरना अपने तथा
कथित प्रभाव क्षेत्र में अपने तथा कथित आका माओं की तर्ज पर चायना जैसा ही सही कोई
भी सफल विकास मॉडल चरित्रार्थ क्यों नही कर पाये ?
ऐसा नहीं है कि दण्डकारण्य में आशा की किरण
नहीं है .............. आप डिमरापाल जाइऐ वहां के आश्रम से कई सफल आदिवासी बेटियों
की प्रगति गाथा मिलेगी, अबूझ माढ के निकट राम कृष्ण
आश्रम किसी संजीवनी पर्वत से कम नही है, दंतेवाडा क्षेत्र
में गायत्री परिवार के चमत्कृत प्रभाव मिलेगें, गीदम से आगे
भेरमगढ, बीजापुर क्षेत्र में व्यास पीठ में स्थानीय
आदिवासियों की आस्था की अभीव्यक्ति मिलेगी , गंगालूर
क्षेत्र में मिशनरी की सक्रियता भी दिखेगी । बाबा आम्टे के आनन्द आश्रम की
सेवा से भेरमगढ कुटरू मार्ग के दुरूह क्षेत्र में जनजातियों के बीच जीवन की आशा
देखी जा सकती है
इन भगीरथी
प्रयासों कि सफलता से स्पष्ट है कि आम आदिवासी दो पाटों के बीच
में पिसना नही चाहता वरन वह तो निश्छल भावी विकास कार्यो का अभिलाषी है
............ निश्चय ही उसकी यह अभिलाषा सुसंगत स्वयं सेवी प्रयासों से फलीभूत
होगी। इसलिये देश भर में सक्रिय तमाम निशस्त्र सेवा भावी स्वयं सेवी संस्थाओं
को आगे आकर क्षेत्र के विकास में अपनी आहुती देकर आदिवासियों के खोये विश्वास को
जाग्रत करना होगा। आर्य समाज ने देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तथा
महिला चेतना मंच जैसे अनेक एनजीओ राष्ट्र निर्माण में लगे है। स्वामी अग्निवेश
जैसे आर्य समाजियों, वीडी शर्मा जैसे स्वयं सेवियों सहित
विभिन्न क्षेत्रों के तपस्वियों को बस्तर को सिर्फ सरकार और नक्सलियों के बीच
की समस्या न मानकर इस दिशा में सांझा प्रयास हेतु आगे आना समय की दरकार है । हां जिस
प्रकार बिना बागड के उपजाउ खेती नही हो सकती उसी प्रकार बिना कडी सुरक्षा के विकास
का उपयुक्त माहोल भी पेदा होना मुश्किल है। विकास की दिशा में जहां सरकार का
प्रयास सबसे पहले मूलभूत सुरक्षा मुहैया कराकर प्रचलित विकास कार्यो में सक्रियता
बढा कर स्थानिय समुदाय में भरोसा पैदा करने का हों वही स्थानीय स्तर पर
आदिवासियों को नक्सलियों के चंगूल से बाहर आकर स्थानीय पंचायती राज में सह
भागिता करनी होगी और इसके लिये नक्सलवादियों के वारताकारों एवं पेरवी कर्ताओं को
हथियार बन्द नक्सलियों को भी तैयार करने के लिये प्राथमिक तौर पर आगे आना होगा
क्योंकि बंदूक की गर्जना से विश्वास का माहोल कभी पेदा नही हो सकता । निश्चित तौर पर बंदूक की दम पर नक्सली आंतकवादियों को जेल से छूडाने की जिद इस प्रक्रिया
में सबसे बडी बाधा है जिसे स्पेशल फास्ट ट्रेक कोर्ट के गठन से एक चरण बद्ध
तरीके से समय सीमा में निराकृत किया जा सकता है ।
इस पहल से विश्वास
बहाली के परिणाम स्वरूप शांति प्रक्रिया स्थापित होने में समय लगेगा पर क्या
चुनावी दौर में जनप्रतिनिधि और नक्सली दोनो ही इस धीरज को रख पायेगें इसी प्रश्न
के उत्तर में समस्या का समाधान मिलेगा ......... बिन सतसंग विवेक न होई
............ की उक्ति इस समस्या की निराकरण की सबसे बडी जरूरत है वरना दर्भ और
डर के दंस से दर्भा जैसी घटनाओं में आदिवासी , जनप्रतिनिधि,
सुरक्षा बल शहीद होते रहेगें।